Monday, August 16, 2010

Indian engaged in Oz biggest bribery scam

An Indian middleman, Aditya Khanna was engaged in Australia's biggest bribary scandal, a revelation that can change the course of inquiry into the bribery scandal in the country.


Buzz up!Australia's banknote firm 'Securency' appointed Khanna, a businessman, and his Delhi-based firm DSSI Group to help get its plastic banknotes circulating in India.


According the sources, Khanna is related to senior politician Natwar Singh, and has been raided by Indian police in connection with suspect arms deals.

The sources said that a DSSI Group executive confirmed his company's link to Securency.

However, Reserve Bank of Australia (RBA) refused to comment on the matter.

Like the wheat marketing company AWB Ltd of Australia, Khanna was named in the UN Volcker inquiry in 2006 as having profited from oil-for-food programme contracts that included kickbacks to Saddam Hussein's regime in Iraq.

The revelation of Khanna's role with the RBA firm is likely to embarrass the Australian and Indian governments and their central banks, especially after Securency recently won a contract from the Reserve Bank of India to supply one billion polymer banknotes for a trial.

Tuesday, May 18, 2010

RELATED CRIMINAL WHO.....

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों के हमले में जवानों के मारे जाने के बाद। देष के असफल गृह मंत्री और कॉरपोरेट जगत के अच्छे वकील पी चिदंबरम भी काफी गुस्से में बताए जाते हैं। यहां तक कि चिदंबरम अपने इस्तीफे की भी पेषकष कर चुके हैं। लेकिन, जैसा कि तय था, प्रधानमंत्री ने उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया है और उन्हें खून की होली खेलने की मौन स्वीकृति दे दी है।
जाहिर है एक सभ्य समाज में ऐसे नृषंस हमले की इजाजत किसी भी आधार पर नहीं दी जा सकती है। लेकिन इस हमले की पृश्ठभूमि और उसके मूल कारण पर भी सम्यक विचार की जरूरत है। कई रक्षा विषेशज्ञ और पुलिस के बड़े अफसरों समेत प्रधानमंत्री और यहां तक कि लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ मीडिया के कई बड़े पत्रकार भी नक्सलवाद को देष के लिए सबसे गंभीर चुनौती बता चुके हैं। इसके बावजूद सर्वाधिक गंभीर चुनौती से निपटने के लिए सरकार के पास कोई कारगर योजना नहीं है बल्कि सरकार गृह मंत्री के नेतृत्व में स्वयं खून की होली खेल रही है।
अब आवाजें उठ रही हैं कि नक्सलियों के खिलाफ वायुसेना को उतारा जाया जाना चाहिए। इस तर्क के समर्थन में बहुत निर्लज्जता के साथ देष के कई बड़े पत्रकार और राजनेता उतर आए हैं। पुलिस के रिटायर्ड अफसर तो खैर हैं ही चिदंबरम के समर्थन में। पूर्व डीजीपी प्रकाष सिंह का कहना है- ‘छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस प्रकार से जवानों का खून बहाया है वह देष के लिए गंभीर चुनौती है। ऐसी चुनौती जिसका जवाब उन्हीं की भाशा में देना होगा’। लेकिन सवाल यह है कि क्या हवाई हमले से नक्सलवाद खत्म हो जाएगा? अगर इस बात की गारंटी दी जाए तो क्या बुराई है? नक्सलवाद के इतिहास पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि अतीत में जितनी बार भी दमन और हत्याओं और फर्जी एन्काउन्टरों की झड़ी लगाई गई, नक्सलवाद उतनी ही तेजी से फैला क्योंकि हमारी सरकारों की नीयत नहीं बदली। जिस कदम के लिए चिदंबरम की पीठ थपथपाई जा रही है वैसा कदम तो सिद्धार्थ षंकर रे बहुत पहले ही उठा चुके हैं, लेकिन नतीजा क्या निकला? यही कि बंगाल के एक गांव से षुरू हुआ आंदोलन आज पन्द्रह राज्यों में फैल गया। अब जब चिदंबरम दो तीन साल में नक्सलवाद के सफाए की बात कर रहे हैं तो तय मानिए कि इन दो तीन सालों में ही पूरा देष नक्सलवाद की गिरत में होगा, बस दुआ कीजिए चिदंबरम सही सलामत देष के गृह मंत्री बने रहें।
फिर हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं कि नक्सली हिंसा हमारी 60 सालों की राजनीतिक और प्रषासनिक असफलता का नतीजा है। आजादी के बाद विकास का जो पूंजीवादी रास्ता अपनाया गया उसकी परिणिति यह होनी ही थी। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि नक्सलवादी आंदोलन जम्मू-कष्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह या ‘हिन्दू राश्ट्र’ की तरह अलगाववादी आंदोलन नहीं है। लेकिन देष के बाहरी षत्रु इस फिराक में जरूर बैठे हैं कि कब नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई हो और फिर सारी दुनिया को बताया जाए कि भारत में गृह युद्ध छिड़ गया है। ऐसी स्थिति बनने के लिए केवल और केवल एक षख्स जिम्मेदार होगा जिसका नाम पी चिदंबरम है और जो दुर्भाग्य से इस समय देष का गृह मंत्री है। फिर नक्सलवादी अलगाववादी नहीं हैं उन्होंने अलग मुल्क बनाने की बात नहीं की है। वह व्यवस्था बदलने की बात करते हैं, संविधान बदलने की बात करते हैं। संविधान बदलने की बात तो राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी करता है, नक्सलियों ने कोई बाबरी मस्जिद नहीं गिराई है।
हालांकि चिदंबरम ने बहुत सधे हुए पत्ते फेंके थे। मसलन ऑपरेषन ग्रीन हंट प्रारंभ करने से पहले अखबारों और प्रचार माध्यमों के जरिए नक्सलियों के खिलाफ मिथ्या प्रचार की न केवल संघी और गोयबिल्स नीति अपनाई गई बल्कि नीचता की पराकाश्ठा पार करते हुए एक विज्ञापन जारी किया गया जिसमें कहा गया -”पहले माओवादियों ने खुषहाल जीवन का वायदा किया/ फिर, वे पति को अगवा कर ले गये/ फिर, उन्होंने गांव के स्कूल को उड़ा डाला/ अब, वे मेरी 14 साल की लड़की को ले जाना चाहते हैं।/ रोको, रोको भगवान के लिए इस अत्याचार को रोको“।
यह विज्ञापन गृह मंत्रालय द्वारा जनहित में जारी किया गया जिसके मुखिया चिदंबरम हैं। जाहिर है उनकी सहमति से ही यह जारी हुआ। लेकिन प्रष्न यह है कि इसमें उस महिला का नाम क्यों नहीं खोला गया जिसकी 14 साल की लड़की को नक्सली ले जाना चाहते हैं? क्या चिदंबरम साहब बताने का कश्ट करेंगे कि नक्सली किसकी लड़की को ले जाना चाहते हैं। इसके तुरंत बाद गृह मंत्री गली के षोहदों की स्टाइल में कह रहे थे कि नक्सलियों को दौड़ा दौड़ा कर मारेंगे। एक तरफ वह नक्सलियों को मारने की बात कह रहे थे तो दूसरी तरफ ‘ऑपरेषन ग्रीन हंट’ जैसे किसी ऑपरेषन के जारी होने को नकार भी रहे थे। जबकि ठीक उसी समय छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ननकीराम कंवर बयान दे रहे थे कि ऑपरेषन ग्रीन हंट के दौरान 25 मार्च तक 90 माओवादी छत्तीसगढ़ में मारे गए हैं। जब चिदंबरम की सेना आदिवासियों को मारने जाएगी तो क्या वे फूल माला लेकर स्वागत करेंगे? जाहिर है वे वही करेंगे जो उन्होंने दंतेवाड़ा में किया। फिर किस आधार पर इस कांड के लिए अब नक्सली ही जिम्मेदार हैं? क्या दंतेवाड़ा के लिए वह षख्स जिम्मेदार नहीं है जो एक दिन पहले ही पं बंगाल में कह रहा था कि नक्सली कायर हैं सामने क्यो नहीं आते? अब जब वे सामने आ गए तो चिदंबरम रोते क्यों हैं? और अब यह बात सामने भी आ गई है कि चिदंबरम की कारगुजारियों की खुद कांग्रेस के अंदर जबर्दस्त मुखालिफत हो रही है।
इस घटना के तुरंत बाद चिदंबरम ने बयान दिया कि -‘ये माओवादी हेैं जिन्होंने राज्य को ‘दुष्मन’ और संघर्श को ‘युद्ध’ का नाम दिया है। हमने इस षब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया । ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।’ क्या कहना चाहते हैं हमारे गृह मंत्री? यही कि राज्य के पास हथियार रखने और निरीह आदिवासियों को मारने का कानूनी अधिकार है?
ताज्जुब यह है कि दुर्गा वाहिनी, बजरंग दल जैसे खूंखार कबीले बनाने वाला और दषहरे के रोज षस्त्र पूजन करने वाले उस आरएसएस ने भी जिसके पूर्वजों ने 15 अगस्त 1947 को बेमिसाल गद्दारी का दिन कहा था , दंतेवाड़ा कांड को भारत के लोकतांत्रिक सत्ता प्रतिश्ठान को माओवाद, नक्सलवाद की खुली चुनौती और माओवादियों को नृषंस हत्यारा बताया है।
दंतेवाड़ा कांड पर गुस्से का इजहार करने वाले यह सवाल क्यों नहीं पूछते कि सीआरपीएफ के यह जवान घटना स्थल के पास क्या करने गए थे जबकि वह स्थान ऑपरेषन के लिए चिन्हित नहीं था। अखबारों में आई रिपोर्ट्स बताती हैं कि गृह मंत्रालय के अधिकारी स्वयं इस बात पर हैरान हैं कि जब हमले वाला इलाका कार्रवाई के लिए चिन्हित केंद्रीत जगहों में नहीं था तो इतनी संख्या में जवान जंगल के अंदर तक क्यों गए? इतना ही नहीं दंतेवाड़ा पर लानत मलानत करने वाले मीडिया ने एक दिन पहले ही यह खबर क्यों नहीं दी कि जवान इस घटना से पहले आदिवासियों की एक बस्ती में गए थे और नक्सलियों की सर्च के नाम पर उन्होंने 26 महिलाओं के साथ बदसुलूकी की थी और एक महिला का हाथ भी तोड़ दिया था। यह खबर सिर्फ एक समाचार एजेंसी के द्वारा तब जारी की गई जब नक्सलियों ने दंतेवाड़ा को अंजाम दे दिया। जरा सवाल देष पर मर मिटने वाले सरकारी षहीदों के साथियों से भी पूछ लिया जाना चाहिए कि घटनास्थल से कुल चार किलोमीटर दूरी पर ही सीआरपीएफ का कैंप था लेकिन घटनास्थल पर कोई सहायता इस कैंप से क्यों नहीं पहुंचाई गई?
जब तक नक्सलवाद की असल वजह पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, जल-जंगल-जमीन का सही बंटवारा नहीं होगा और बड़े पूंजीपतियों के दलाल हमारे भ्रश्ट राजनेता जब तक यह सच्चाई स्वीकार नहीं कर लेते कि नक्सलवाद कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है बल्कि राजनीतिक समस्या है तब तक चिदंबरम मार्का खून खराबे से कुछ हासिल नहीं होने वाला। एक वाकया इस बात को समझाने के लिए काफी है कि पष्चिम बंगाल के षालबनी में जिंदल स्टील पांच हजार करोड़ रूपये की लागत से इस्पात संयंत्र लगा रही है और माओवादी यहां जिंदल के चार कर्मचारियों को मार चुके हैं। लेकिन जिंदल का एक पाइप निर्माण संयंत्र दिल्ली के नजदीक गाजियाबाद में कई वर्शों से बंद पड़ा है वहां मजदूरों की छंटनी की जा चुकी है और कई एकड़ में फैले संयंत्र में प्लॉटिंग करने की जिंदल योजना बना रहा है। सवाल यह है कि जिंदल गाजियाबाद के संयंत्र को चालू न करके बंगाल में नया संयंत्र क्यो लगा रहा है? अगर इस सवाल का जवाब ईमानदारी से दे दिया जाए तो नक्सलवाद को समझने में बहुत मदद मिलेगी।
सारे प्रकरण के दौरान स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ घोशित करने वाले उस मीडिया का रोल, (जिसके लिए दंतेवाड़ा से ज्यादा महत्वपूर्ण सानिया और षोएब की षादी और आईपीएल है) बहुत ही घातक और चिदंबरम के एजेंट का रहा। थोड़े दिन पहले ही चिदंबरम को लौह पुरूश सरदार वल्लभ भाई पटेल का अवतार घोशित करने वाले एक पत्रकार के संपादकत्व में चलने वाले एक चैनल के रायपुर से रिपोर्टर ने फतवा जारी कर दिया कि अब सुरक्षा बलों को पूरी छूट दे देनी चाहिए। तो चाट पकौड़ी के ठेलों पर खड़े होकर इंडिया का जायका बताने वाले एक समाचार वाचक ( उन्हें पत्रकार कहते हुए षर्म आती है) ने भी ऐसी घोशणा कर डाली। जबकि एक बड़े पत्रकार जिन्होंने टाईम्स समूह की नौकरी इसलिए छोड़ दी थी कि वहां ब्रांड मैनेजर संपादकीय में दखलंदाजी करते हैं, लिखा- ‘माओवादी भारत के लोकतंत्र को नकली लोकतंत्र या दिखावटी लोकतंत्र मानते हैं और कहते हैं कि जैसे माओत्से तुंग ने बंदूक के बल पर चीन में सत्ता पर कब्जा किया, वैसे ही भारत में भी जरूरी है। आज जब नक्सलवादी बाकायदा सेना बनाकर हमारे अर्द्धसैनिक बलों के निषना बना रहे हैं, प्रष्न और सारे मुद्दे गौण हो गए हैं। माओवादियों ने बड़ा हमला करके युद्ध का बिगुल बजाया है, उन्हें कड़ा जवाब देना जरूरी हैं’। यानी अब यह मुद्दा रहा ही नहीं कि चिदंबरम कभी उन खनिज कंपनियों के वकील रहे हैं जिनके हितों की रक्षा के लिए ऑपरेषन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है? वह आगे लिखते हैं- ”हममें से अनेक सिर्फ आधार पर कि ये माओवादी आदिवासियों के हमदर्द हैं, इनकी सषस्त्र संघर्श की भूमिका से सहमत न होते हुए भी इनसे सहानुभूति रखते आए है। क्योंकि यह दावा किया जा रहा था कि ये उन आदिवासियों के लिए काम करते हैं जो बार बार विस्थापित होते रहे हैं। जो लगातार षोशण का षिकार हैं। हम यह मानते आए हैं कि अगर आदिवासी इलाकों का विकास हो जाए, उनकी अपने इलाके के संसाधनों के बंटवारे पर आवाज सुनी जाने लगे तो नक्सलवाद या माओवाद की समस्या का हल निकल आए लेकिन हम गलत थे और यह गलती हमें स्वीकार करनी चाहिए।’ कितनी ईमानदारी के साथ इन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर ली है। इसी तरह एक खुफिया अफसर की तरह पटना से एक पत्रकार ने रिपोर्ट दी- ‘नक्सली संगठन अब नेपाल के रास्ते चीन से हथियार मंगाने लगे हैं। नेपाल के माओवादियों से बिहार के नक्सली संगठनों का गठजोड़ हो गया है।’
यह गृह मंत्री का कमाल है कि गृह सचिव जीके पिल्लई की हैसियत लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधती राय को धोखेबाज करार देने की हो गई है। एक अंग्रेजी दैनिक से बात में उन्होंने कहा कि राय ने संसदीय लोकतंत्र की उस गरिमा को ठेस पहुचाई है जो उन्हें स्वतंत्र रूप से मनमाफिक राय जाहिर करने की छूट देती है।
कभी नक्सली आंदोलन के बड़े कमांडर रहे असीम चटर्जी ने हाल ही में कहीं कहा था कि-‘ भारत में संसदीय प्रणाली है। इतिहास साक्षी है जिन जगहों पर संसदीय प्रणाली है वहां कभी भी क्रांतिकारी आंदोलन सफल नहीं रहा।’ असीम दा के विचारों से इत्तेफाक रखते हुए भी एक सवाल यहां छोड़ा जा रहा है कि जहां सूरत मुबई अहमदाबाद की सड़कों पर कांच की बोतलों पर लड़कियां नंगी करके नचाई जाती हों और उनसे सामूहिक बलात्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती हो, जहां गुलबर्ग सोसाइटी, नरोदा पाटिया और बेस्ट बेकरी कांड के हत्यारे षासक हों, जहां बेलछी, लक्ष्मणपुर बाथे आबाद हों, जहां 1984 के सिखों के कातिल अभी तक छुट्टा घूम रहे हो, जहां मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद डेढ़ लाख किसान आत्महत्या कर चुके हों, जिस मुल्क की लगभग चालीस फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे रह रही हो, क्या यही लोकतंत्र है? अगर यही लोकतंत्र है जिसकी रक्षा करने का दावा किया जा रहा है तो ऐसे लोकतंत्र को जितना जल्दी हो सके आग के हवाले कर देना चाहिए।

Friday, February 5, 2010

क्या भारत सभी धर्मो के लोगो के लिए सुरक्षित है?

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहाँ सभी लोगो को अपना धर्म का अंनुसरन करने का पूर्ण अधिकार है । लेकिन क्या भारत में सभी लोग सुरक्षित है ? बतला हाउस एन्कोउन्टर के ऊपर लगे फर्जी होने का दाग क्या भारत में रहने वाले हिन्दू धर्म के आलावा अन्य धर्मो के लोगो के मन में असुरक्षा की भावना पैदा कर सकता है । सच अभी तक किसी को नहीं पता है लेकिन कोई भी पार्टी इस मुद्दे को लेकर अपनी राजनितिक रोटी सेंकने से बाज़ नहीं आ रही है।